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Sufi Ghazal 7


मेरी तलब भी, तेरे करम का सदक़ा है ये पाँओ उठते नहीं, उठाए जाते हैं ॥
किसी की क्या बिसात के, तुझसे इश्क़ करे आंसू जो बहते हैं सजदे में, बहाए जाते हैं ॥
ये लुत्फ़, ये खुमार, ये कैफ़ियत ए वज्द रूखे ए महबूब के ग़ोते, दिलाए जाते हैं ॥
उसे पसंद है तेरा तरीक़ा ए इज़हार ए इश्क़ तभी तो बार बार, दस्त दूआ में उठाये जाते हैं ॥
दरबार ए आली मरतबत को पलकों से चूमा मैंने शुक्र है के वो आदाब ए शौक़ सिखाये जाते हैं ॥
तेरी तड़प, दूर रह कर ही, तुझे नफ़ा देती है सालिक पुल सिरात पे चले, जो हाज़िरी को बुलाये जाते हैं ॥
या रसूलअल्लाह, हम भिखारी हैं मदीने के इसीलिए, दुनिया में मर्तबे पे बिठाए जाते हैं ॥
वो क्या मंज़र होगा, महशर की हैबत में “अब्दाल” प्यासे को मुद्दतों के, वो जाम ए दीद पिलाए जाते हैं ॥