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Sufi Ghazal 4


अपने अंधेरे में, तेरे जलवों का नूर देखता हूँ अंधा हूँ जो अंदर नहीं, कहीं दूर देखता हूँ ।।
हुस्न ख़ुदा की, कुल तौसीफ है यही शह रग कभी, कभी ताब तूर देखता हूँ ।।
असले जन्नत क़ुर्ब दीद महबूब है क्यूँ वो नहर जन्नत, वो हूर देखता हूँ