तेरी हसरत-ए-दीद, मेरे महबूब मैं तर्क करता हूँ
हक़ तो ये है के, मैं मुस्तहिक-ए-दीद नहीं ।।
वो ख़्वाबों का वूज़ु, वो इश्क़ की मेराज मेरी
तड़प भी है, तलब भी है, सुबूत को रसीद नहीं ।।
वो तेरी शीरी की सेहरी, वो नूर के पाक रोज़े
इफ़्तारी को ख़याल तेरा, मगर मेरी ईद नहीं ।।
वो कहते हैं के, नाउम्मीदी कुफ़्र है अब्दाल
तू ही वाली मेरा, मुझको मुझसे उम्मीद नहीं ।।
ख़त्म ये गुज़ारिश, इस उम्मीद ए शफाअत पर हो गयी
मैं कुल गुनाहों में मुबतेला, मेरा ज़र्रा भी सईद नहीं ।।
ऐ नूर के नूरूलहुदा, सरे मेहशर मेरा भरम रखना
मैं ना माँग पाऊँगा आका, मैं मुसतहिक ए दीद नहीं ।।