Ghazal 32 - डर लगता है
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Ghazal 32 - डर लगता है

मेरे महबूब को दर्द-ए-मुहब्बत से डर लगता है चाहिए सुकून-ए-इश्क़ मगर शहादत से डर लगता है ।।
वो मेरी हर सुभ की पहली चाय सी है ज़ुरूरत है बड़ी लज़ीज़ मगर उसकी आदत से डर लगता है ।।
उसका ख़ौफ़-ए-हिज्र मुझे बीमार कर देता है वही है इलाज मगर अयादत से डर लगता है ।।
मुझे मंज़ूर है उसका आँखों से मुझे राख कर देना क़यामत है के झगड़े में लताफ़त से डर लगता है ।।
तू नहीं है क़ाबिल-ए-इश्क़, कवानीन-ए-दुनिया के मुताबिक़ वो फिर भी है माशूक़ मेरा, इस इनायत से डर लगता है ।।
नेस्त ही होता है इंसान, जुस्तजू ए इश्क़ में “अब्दाल” कहता हूँ ख़ुद को आशिक़ इसलिए शिकायत से डर लगता है ।।