Ghazal 28 - मुझे कहाँ फ़ुरसत के मैं मौसम सुहाना देखूँ
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Ghazal 28 - मुझे कहाँ फ़ुरसत के मैं मौसम सुहाना देखूँ

शिरकत
मुझे कहाँ फ़ुरसत के मैं मौसम सुहाना देखूँ आपकी नज़रों से निकलूँ तो ज़माना देखूँ ॥
मैं बहुत कुछ था मगर कुछ नहीं आपके लिये अब जब भी आईना देखूँ, एक दीवाना देखूँ ॥
मेरी मुहब्बत तौलने का सिर्फ़ यही तरीक़ा है जो देखूँ आपकी आँखें, अपना पैमाना देखूँ ॥
शमा ने तवाफ ए यार में, ज़िंदगी सर्फ़ कर दी मैं वो जुगनू आशिक़ हूँ के, ख़ुद परवाना देखूँ ॥
आप ही तो ज़रूरी हैं मेरी ज़िंदगी की ख़ातिर फिर क्यूँ मैं आपका असर मुझ पे, क़ातिलाना देखूँ ॥
सच है के आप मेरी हक़ीक़त से कोसो बाहर हैं दिल के रास्ते ख़्वाब में आपका आना जाना देखूँ ॥
आपकी आवाज़ ने किया था मदहोश एक मर्तबा के अब क्या ज़रूरत है के मैं मयखाना देखूँ ॥
चलें हसरतों के बाज़ार में आपको आराम दूँ बाद इश्क़ के “अब्दाल” अपना आबो दाना देखूँ ॥