Ghazal 17 - यूँही कोई बेवजह नाराज़ नहीं होता
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Ghazal 17 - यूँही कोई बेवजह नाराज़ नहीं होता


यूँही कोई बेवजह नाराज़ नहीं होता बिन असलों के, जंग का आगाज़ नहीं होता ॥
तपा है वो तजुर्बों की भट्टी में तभी बिन ज़ख़्मों के, पैदा कोई जाबाज़ नहीं होता ॥
मिट गई नींदें, रातों की मेहनत-काशी से, बिन इल्म के, अता कोई ऐजाज़ नहीं होता ॥
ये भूख है कि मिटती नहीं मिटाने से, बिन संगदिली के, कोई फ़ैयाज़ नहीं होता ॥
ये महकमा है बूज़दिलों का, इल्म कहाँ बिन उस्ताद-ए-हक़ के, कोई शाबाज़ नहीं होता ॥
होता है प्यासा, कोई हालात का नहीं “अब्दाल” बिन मय के साक़ी, कोई दिलबाज़ नहीं होता ॥