जिसे तजुर्बा ए उरूज नहीं, उसे ज़वाल से कैसा डर
जिसे ख़ौफ़ ए जवाब नहीं, उसे सवाल से कैसा डर ॥
इंसान जीता है आख़िरत की फ़िक्र में हमेशा
जो ना भी मिले दुनिया, तो मलाल से कैसा डर ॥
जिसने शरीअत को ज़ेवर ए तिजारत बना दिया
इल्म हो या ना हो, हराम ओ हलाल से कैसा डर ॥
रोज़े क़यामत मुंतज़िर हैं आशिक़ दीदार के
है अभी हिजाब ए हिलाल, फ़िलहाल से कैसा डर ॥
तैयारी की हैं दुनिया कि, दग़ाबाज़ी के क़िस्से सुन
वफ़ा गर करे ज़माना, तो इस ख़्याल से कैसा डर ॥
क्यों डर डर कर जीता है ज़िंदगी को आख़िर
मरना तो सबको है, फिर विसाल से कैसा डर ॥
रब देखता है सिर्फ़ सीरत ए क़ल्ब को “अब्दाल”
गो के उसने बनाया, फिर रंग-ए-बिलाल से कैसा डर ॥