“माँ” - नहीं दिखती
मुझे हंसी में अब, खुशी नहीं दिखती
मेरी हसरत की खातिर,
“माँ” दुखी नहीं दिखती
रोटियाँ तीन, औलाद ओ शौहर में बंट गयीं
खाली फाकों के बावजूद,
“माँ” भूखी नहीं दिखती
एक रात डर कर ख़्वाब से जागा था मैं
उस रात के बाद कभी,
“माँ” सोती नहीं दिखती
क़द्र है रब को उसके आंसुओं की तभी
मेरी फ़िक्र में ज़ाहिरन ही सहीं,
”माँ” रोती नहीं दिखती
चार दीवारी की झूठी आबरू की खातिर
हर क़यामत के बावजूद,
"माँ" रूठी नहीं दिखती
वो लम्हा ज़र सा गुज़र, दिल सहम जाता है
जब दाख़िल ए घर पे सामने मुझे,
”माँ” बैठी नहीं दिखती
“अगले दो शेर उनके लिए, जिनकी माँ अब इस दुनिया में नहीं है”
मैं फ़तह कर लूँ आसमाँ के सीनों को मगर
असल कामयाबी कभी भी,
”माँ” बिना नहीं दिखती
क़यामत की तारीफ़ ये है “अब्दाल”
के मैं आवाज़ देता हूँ आदतन मग़र,
“माँ” नहीं दिखती