Ghazal 01 - बुर्दा ए तारीकी थी, उम्रदराज़ से माशूक़
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Ghazal 01 - बुर्दा ए तारीकी थी, उम्रदराज़ से माशूक़


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बुर्दा ए तारीकी थी, उम्रदराज़ से माशूक़ उसके नूर ए महव ने मुझे, ताबिन्दा कर दिया ||
मेरे महबूब ने, कुछ यूँ इमदाद की मेरी दर्द ए दिल से, दिमाग़ को, ज़िंदा कर दिया ||
जो कफ़स में क़ैद थे, मेरे अरमां अरसे से उसकी ज़ुल्फ़ों के बिखरने ने उन्हें, परिंदा कर दिया ||
ख़्याल ए यार तो, बाईस ए हिम्मत है मग़र उसकी एक निगाह ने मुझे, कुशींदा कर दिया ||
आम हैं क़िस्से, मुहब्बत में नेस्त हो जाने के जी कर उसकी “ना”, मैंने ये क़िस्सा, चुनिंदा कर दिया ||
दो लफ़्ज़ों से उसने, इंसान किया था मुझे उसकी ख़ामोशी ने मुझे वापस, दरिंदा कर दिया ||
कोशिश तो बहुत की थी, उसे भुलाने की “अब्दाल” हर क़ोशिश ए नाकाम ने उसे वापस, ज़िंदा कर दिया ||