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Sufi Ghazal 9


मेरी चाहत ए दीद, तेरा हिजाब है बता ये इश्क़ का कैसा निसाब है॥
जितना तुझे पढ़ा सुना है किताबों में तू ही मेरा आफ़ताब, तू ही महताब है॥
नुक़्ता ए गुनाह से पाक कर इन आँखों को फिर देख सामने, दर ए महबूब का मिहराब है॥
तौफ़ीक़े ए दुआ ए इश्क़ ओ दीद अता कर या रब बस इसी पे टीका, मेरा ज़वाल या मेरा शबाब है॥
धोती है जो तेरी बारगाह के फ़र्श को बौछार मेरा आबे ज़म ज़म, वही मेरा दोआब है॥
अपनी औक़ात से ज़ायद माँग रहा हूँ मैं आका ए राह तिल आशिक़ीन, नहीं करता तू हिसाब है॥
तू ना चाहे तो कभी ना उठाना पर्दा मेरे महबूब इमकान ए दीद की तलब, यही मेरी शराब है
ग़र कभी उठा पर्दा, इस कुत्ते पे “अब्दाल” आँखें नीची कर लूँगा, नहीं मुझमें शिहाब है ॥