Ghazal 29 - एक आशिक़ इश्क़ बेच रहा था मुझे
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Ghazal 29 - एक आशिक़ इश्क़ बेच रहा था मुझे

एक आशिक़ इश्क़ बेच रहा था मुझे कहता था के ये कोई तिजारत नहीं है ॥
मानता था के मुहब्बत कि नींव ख़ालिस दिलों का मिलन है बनायी जाये जो पैसों से, ये इतनी सस्ती इमारत नहीं है ॥
उसे मैंने मुहब्बत के हिसाब-किताब का तजुर्बा-ए-दर्स दिया बताया कितना खर्च हुआ, इश्क़ में, के अब जीने की हालत नहीं है ॥
आओ तुम्हारी ग़लतफ़हमी, आज मैं दूर करूँ अदा हो मेरी ज़ुम्मादारी, फिर खिज़ालत नहीं है ॥
जब मैने किया था इक़रार, वज़ाहत ए राय की ख़ातिर कहा के सब तो ठीक है, सिर्फ़ “वो” जमालत नहीं है ॥
अव्वल कहा बदसूरत, फिर आयी मेरी औक़ात पे अभी मैं कामयाब नहीं, के क़ुव्वत ए किफ़ालत नहीं है ॥
वो मुजस्समा हूर का, हक़ है के, ख़ूबसूरत महबूब रखे दिल से कह रहा हूँ ये, सुनो कोई शिकायत नहीं है ॥
मसला ए औक़ात ये है के कभी तो मैं उरूज पाऊँगा सब हो पर तू ना हो, बता क्या ये क़ियामत नहीं है ॥
तू मुझे मेरी बदसीरती का हवाला दे, मना कर देता यूँ आशिक़ों की नीलामी, कोई बसालत नहीं है॥
इश्क़ को ऊँचे मसनदों पे बैठाना बंद करो ये बर्बादी है, कोई अच्छी सफालत नहीं है ॥
शुरू होता है, हाय से, फिर निकलती हाय है मोहब्बत मलाल है पर लायके मलालत नहीं है ॥
ग़र तूने कर ही लिया इश्क़ में ख़ुद को बर्बाद कोई सुनवाई, कोई आशिक़ों की अदालत नहीं है ॥
चल तूने तो कोशिश की इन आशिक़ों को बचाने की “अब्दाल” फिर भी जो ये बर्बाद हुए, आख़िर ये इश्क़ है, कोई विलायत नहीं है॥