Ghazal 27 - किसी को क्यूँ बतलाएँ अपने ग़म
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Ghazal 27 - किसी को क्यूँ बतलाएँ अपने ग़म


किसी को क्यूँ बतलाएँ अपने ग़म हमहिं हैं मर्ज़ अपने, हमहिं हैं मरहम ॥
हमारा दिल अब दर्द से सूख चुका है वास्ते ज़िंदगी दरकार बस तेरी शबनम ॥
शांत नहीं ज़िंदगी, ये अंदर की बात है चलती है एक जंग, एक तलाश बर्हम ॥
ख़ैर ज़िंदा रहना, ज़िंदगी जीना, दो बातें जो ना जी सकें, फिर भी ज़िंदगी है अहम ॥
तेरे रहने ना रहने से कुछ फ़र्क़ पड़ता है “अब्दाल” क़ब्रिस्तान देख कर आ, ये तेरा कैसा है वहम ?