Ghazal 18 - हर शाख़ पे हैं काँटे भूखे खून के, तू गुलफाम पैदा कर
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Ghazal 18 - हर शाख़ पे हैं काँटे भूखे खून के, तू गुलफाम पैदा कर


हर शाख़ पे हैं काँटे भूखे खून के, तू गुलफाम पैदा कर जो अबाबील से हो फतेह जंगें, वो दवाम पैदा कर ॥
मिट गई कब्रों में बदशाहों की बुलंद इमारतें लबे मिस्कीन से निकले दुआ, वो नाम पैदा कर ॥
प्यालों में भरकर पिया है ज़माने ने शराब को हमेशा पिलाई जाए आंखों से दिलों को, वो जाम पैदा कर ॥
बहुत हैं ढोंग को वजूद-ऐ-मज़हब की खातिर जो मिटे भूख गरीब की, वो राम पैदा कर ॥
उम्र बीत गयी इबादतों में वो सजदा ना किया मुनव्वर हो मस्जिद-ए-क़ल्ब वो इमाम पैदा कर ॥
ये दुनिया दौड़ है अव्वल रहने की फानी फहरिस्तों में उस्ताद-ए-इंसानियत से हो सबक वो गुलाम पैदा कर ॥
तारीखों की कागजों की ज़मानत है वक़्त को “अब्दाल” नेकियों के मोती कम नहीं चुनने को, नए आयाम पैदा कर ॥